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सर्दियों की सुबह दो / रजनी अनुरागी

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दो

ठीक उसी सुबह उसी समय
गली में दिखाई देते हैं अनगिनत बच्चे
कूड़ा बीनते हुए
ठंड से ठिठुरते हुए
काँपते हाथ, जेबड़ी बने बाल
सर्द ज़र्द चेहरे, पिचके खाली पेट
फटे कपड़े, बेहद चीक्कट बदहाल
बीनते हैं कूड़े से ‘उपयोगी’ सामान
मसलन कागज़, काँच, गत्ते, प्लास्टिक

रखते हैं अपने पास चुम्बक भी
खींचते हैं उससे लोहा
चमचमाने लगती हैं आँखे
लोहे के कण, कीलें, और वारसल पाकर
कद से बड़े इनके झोले
भर जाते हैं, हमारे फैंके हुए कूड़े से

बेहद लगन से ये बीनते और छानते हैं कूड़ा
और बुनते हैं सपने
देखते हैं पैंट-टाई में स्कूल जाते बच्चों को
सोचते होंगे शायद
क्या हम भी कभी स्कूल जा पाएंगे
शायद वह दिन कल ही आए
पर वह दिन कभी आता भी है
किसे पता

मगर बच्चे तो हर दिन/ यहाँ वहाँ
बीनते ही जाते हैं कूड़ा
सर्दियों की हाड़ गोड़ ठिठुरा देने वाली सुबह में भी।