सर्वस्व / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
तुम्हें चाहा
तुम्हें पाया
कुछ भी तो
बचाकर नहीं रखा तुमने
मैंने भी खोल दिये
अपने हृदय के किवाड़
इतना प्यार होते हुए भी
क्यों नहीं मिल पाये
बहुत सोचा
कुछ नहीं सूझा
शायद तुम मुझे कायर समझो
पर कैसे हक जमाता
किसी और की सत्ता पर
क्या ये अमानत मंे खयानत ना होती?
क्या ये धोखा-बेईमानी ना होती?
हो सकता है, अभी दिल में एक फाँस चुभे
अभी दर्द रिसे, आँसू बहे
हो सकता है दिल को
कोई अनजानी ताकत मसले
पर बचेंगे, उस आग से
जो अनंत तक जलाती है
कितना भी पश्चाताप कर लो
वो आग कहाँ बुझ पाती है
कोई माफ भी कर दे
तो भी खुद को
कोई माफ कहाँ कर पाता है
इसलिए अब रो लेंगे
थोड़ा या ज्यादा
दर्द बढ़ेगा, दर्द रिसेगा
फिर जख्म भर जायेगा
एक कसम प्यार की
हमेशा चमकेगी
हृदय में तारे की तरह
शायद फिर कभी मिलेंगे
किसी समय में
किसी पथ पर
टूटते तारों की तरह
बस यही जीवन है
इसकी यहीं भावनाएँ हैं
तरसता है
ईश्वर भी जिसके लिए
आना चाहता है धरा पर
प्रेम के लिए
हाँ सच, प्रेम के लिए
चाहे दुःख हो या सुख
प्रेम मिलना ही
अपने आपमें
ईश्वर का मिलना है।