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सलेटी हवा / ज्योत्स्ना मिश्रा

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हवा किसी तूफ़ान के बाद के
सन्नाटे की तरह सलेटी है
मैं अपनी पथराई आँखों में
सुकून का सुरमा पारना चाहती हूँ
पलकें ज़िद्दी हैं
किसी इंतज़ार की तरह

किरची किरची ढह रहा है चाँद
रौशनी सुबकियों की मानिंद, टुकड़ों में आती है
बेचैनी की किश्तें ख़त्म नहीं होतीं
अमावस के आकाश को देखकर
अनुमान लगतीं हूँ
तुम्हारी तरफ बादल छँट गए होंगे
और ज़्यादा कोशिश करके
गिनती हूँ बची खुची धडकनें
ये अब तुम्हारे नाम से दुगुन तिगुन नहीं होतीं
न जाने क्यों?
जब शिखर गलते हैं
नदियाँ किनारे तोड़ती ही हैं
मगर कभी झीलें बन जातीं हैं
किसी पहाड़ की अनाम तन्हाई में
जहाँ कभी कोई सैलानी नहीं जाता