भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सवाल ज़्यादा हैं / आलोक धन्वा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुराने शहर उड़ना
चाहते हैं
लेकिन पंख उनके डूबते हैं
अक्सर ख़ून के कीचड़ में !

मैं अभी भी
उनके चौराहों पर कभी
भाषण देता हूँ
जैसा कि मेरा काम रहा
वर्षों से
लेकिन मेरी अपनी ही आवाज़
अब
अजनबी लगती है

मैं अपने भीतर घिरता जा रहा हूँ

सवाल ज़्यादा हैं
और बात करने वाला
कोई-कोई ही मिलता है
हार बड़ी है मनुष्य होने की
फिर भी इतना सामान्य क्यों है जीवन ?