सवेरा हो गया है / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
हरे पत्तों से घिरी कोपल
नोक पर आकाश उठाए
फ़ैल जाना चाहती है
संजीवनी धूप के मैदान में।
विकासोन्मुख गुलाबी कली
खोलती है आँख
अंगडाइयाँ लेकर
मखमली पटल पर
हीरे की कनी
ओस की बूँद
दिशाओं में नाना
रंग भरते कुसुम
खिलखिला कर हंस रहे हैं
चहरे से चादर हटा कर
मंथर पवन लेजा रही है
लूट कर मकरंद
शहनाइयों के स्वरों का कम्पन
काले उदधि की
गहराइयों से निकल कर
पवन की सवारी करने लगा है
प्रखर किरणों से पराजित चाँदनी
रात की जड़ शांति लेकर
उड़ गई आकाश में
मंदिर के गुम्बदों को
चूमती पहली किरण
देवता को गहन
निद्रा से जगाती है
पुजारी ने खोल दिए पट
आस्था के पैर के घुँघरू
बजने लगे नमन के भाव में
एक कबूतर आकर बैठ गया
रोशन्दान पर
कुछ देर गुटरगूं करता रहा
फिर उड़ गया आकाश में
लिख गया दरोदीवार पर
अब सवेरा हो गया है
प्रश्न जो कल
रह गए थे अनुत्तरित
मुंह उठाए फिर
खड़े हैं उत्तरापेक्षी
नए प्रश्नों की आहट
सुनाई दे रही है
रात को जो सो गईं थीं
चिंताएँ फिर जग गई हैं
कुछ वास्तविक कुछ काल्पनिक
फिर बटोरे जारही है जिंदगी
कुछ हार के गम
कुछ जीत की खुशियाँ
सबेरा हो गया है