सवेरे उठते ही देखा निहारकर
घर में चीजें बिखरी पड़ी है सब,
कागज कलम किताब सब कहाँ तो रखी हैं,
ढूंढ़ता फिरता हूं, मिलती नहीं कहीं भी ढ़ूढ़े।
मूल्यवान कहाँ क्या जमता है
बिखरा सब, न कहीं कोई समता है
पत्र-शून्य लिफाफे सब पड़े हैं छिन्न भिन्न
पुरूष जाति के आलस्य यही तो है शायद चिह्न।
क्षण में जब आ पहुंचे दो नारी हस्त
क्षण में ही जाती रही जितनी थी त्रुटियाँ सब।
फुरतीले हाथों से निर्लज्ज विशृंखला के प्रति
ले आती है शोभना अपनी चरम सद्गति।
कटे-फटे के क्षत मिटते है, दागी की होती लज्जा दूर
अनावश्यक गुप्त नीड़ कहीं भी न बचता फिर।
फूहड़पन में रहता और सोचता अवाक् हो
सृष्टि में ‘स्त्री’ और ‘पुरूष’ बह रहीं ये धारा दो;
पुरूष अपने चारों ओर जमाता है कूड़ा भारी,
नित्यप्रति दे बुहारी करती साफ-सुथरा नारी।
कलकत्ता
दोपहर: 14 नवम्बर, 1940