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सवेरे सवेरे / अज्ञेय

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 सबेरे-सबेरे नहीं आती बुलबुल,
न श्यामा सुरीली न फुटकी न दँहगल सुनाती हैं बोली;
नहीं फूलसुँघनी, पतेना-सहेली लगाती हैं फेरे।
जैसे ही जागा, कहीं पर अभागा अडड़़ाता है कागा-
काँय! काँय! काँय!

बोलो भला सच-सच
कैसे विश्व-प्रेम फिर ध्यावे कोई?
कैसे आशीर्वच-'मुदन्तु सर्वे प्रसीदन्तु सर्वे,
सर्वे सुखिन: सन्तु।' गावे कोई?
ऐसी औंधी खोपड़ी क्यों पावे कोई?

काँय! काँय! काँय!
क्या करें, कहाँ जायँ?
मुँह से यही हाय! निकले है मेरे-
'धत्तेरे! नाम जाय!'
सच, मुँह-अँधेरे सबेरे-सबेरे!

इलाहाबाद, 23 दिसम्बर, 1948