सहयोगिता / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
ब्रह्मा बाबा सभक पितामह देव दनुज सभ नीति
समदर्शी वेदज्ञ विदित क्यौ ने हित, ने आराति
किन्तु आइ दानव - दल जुटिकय आयल लगबय दोष
‘अहँ नित करी देवताहिक हित, दानवपर कत रोष!’
कहल पितामह, ‘वत्स! दुहू जन छी सनतान समान
पक्ष विपक्ष न करी, अपन व्यवहारे फलक निदान।’
राक्षस गनक मनक संतोष न भेल, देखि विधि विज्ञ
देल नोत भोजक किछु कहि सुनि मूर्ख-विरोध अभिज्ञ
आयल हुलसल-फुलसल पहिने जत राक्षस-समुदाय
कहलनि, ‘मोदक खाउ किन्तु केहुनि नहि मोड़ल जाय।’
मोदक मधुर हाथ बिनु मोड़ने न पुनि खैब उजिआय
एम्हर ओम्हर छिड़िआय किन्तु नहि दाना मुँहमे जाय
तावत पहुँचि गेला आमंत्रित सुर गण विगत-विकार
सुनि आज्ञा ब्रह्माक परस्पर मिलि-जुलि कय सहकार
एक खोआबथि दोसरकेँ नहि कर मोड़बाक प्रसंग
संच-मंच भोजन कैलनि नहि अनुशासनक उलंघ
असुरक फुटकर भोग अहितकर सुरक सुखद-सहयोग
स्वयं प्रमाणित भेल, विधाता पर व्यर्थे अभियोग