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सहसा यह क्या / नेमिचन्द्र जैन
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सहसा यह मन में क्या किरण-सी उतर गयी
मोहिनी किसी मायालोक की बिखर गयी
पल भर-- बस केवल एक क्षण के उन्मेष में
कैसी अपरिचित उत्कण्ठा-सी भर गयी
सपनों को किसी ने अचानक सँजो दिया
मन के जुही फूलों को सहज ही पिरो दिया
रोम-रोम जाग उठा आकुल प्रतीक्षा में
प्राणों को विवश व्यथा में समो दिया
मन का यह भाव क्षणभंगुर हो छल हो
प्रीति की पीड़ा तो सत्य है पावन है
मोह का जादू चाहे जितना भी चंचल हो
समर्पण की कालातीत मुक्ति तो चिरन्तन है ।
(1959 में दिल्ली में रचित )