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साँझ : मोड़ पर विदा / अज्ञेय

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हाँ, यह मोड़ आ गया।
जाओ पथ के साथी,
और न बिलमो।
मेरी मंजिल अनजानी है
दूर तुम्हारी क्या कम होगी?
और न बिलमो,
जाओ पथ के साथी।

हाँ, उस आद्र भाव को रहने दो वाष्पाकुल
वह मेरा पहचाना है।
धन्यवाद का पात्र? मैं नहीं, पथ है।
पथ ने ही मुझ को प्रतिभा दी-
यह मोड़ कसक अब देगा।
और न बिलमो
जाओ, पथ के साथी।

और तुम्हारी यह अनकही आद्रता-
(इसी नदी पर तिर आती है नौका सरस्वती की)-
मुझ को देगी वाणी
और न बिलमो
जाओ।

कोई पथ का मोड़ किसी को अलग नहीं करता है
जैसे पथ का संगम मन का घटक नहीं है
और तुम्हारे लिए? धार तीक्ष्ण हो संवेदन की-
नये अरुण पथ लहरावेंगे :
किन्तु न बिलमो-
ये अनकहनी और न अब मुझ से कहलाओ-
पथ के साथी
जाओ।

रीवाँ, 21 फरवरी, 1955