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साँझ और गौरैया / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
मेरे घर के आँगन में
अमरूद के वृक्ष़ पर बैठी गौरैया
चुपके से उतरती है
आँगन में सूख रहे गेहूँ के दानों पर
जैसे एक पूरी उम्र उतरती है
धीरे... धीरे... धीरे...
इच्छाओं के दानों पर
गौरैया चुगती है दाने
फिर भी पड़े हैं पूरे के पूरे दाने
जैसे एक पूरी उम्र गुज़र जाने पर भी
पूरी की पूरी उम्र बिखरी रहती है
धूसर आँखों में... इच्छाओं सहित
साँझ होने तक गौरैया चुग रही दाने
धीरे... धीरे... धीरे...