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साँझ ढले शशि हँसे गगन तब / रंजना वर्मा

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सांझ ढले शशि हँसे गगन
तब आना नदिया तीर रे॥

लहरों की कल-कल छल छल में
हो जब पायल की रुनझुन।
चपल चाँदनी झर-झर बरसे
गुम हो भँवरो की गुनगुन।

ऐसे में जब मृदुल बसंती
बहके सुखद समीर रे।
तब आना नदिया तीर रे॥

कण कण बने जवाहर मुक्ता
आतुर चातक टेरता,
देकर कर की ओट दिए को
विरही प्रिय-पथ हेरता।

चिर संचित धीरज की मुक्ता
टपके बन दृग नीर रे।
तब आना नदिया तीर रे॥