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साँप आ सीढ़ी / मनोज भावुक

का ह जिनिगी?
साँप आ सीढ़ी वाला लूडो के खेल।

जइसे सँपिनिया डँस के, गिरा देले
निनानवे से एक पर,
सीढ़िया ढोके, उठा देले,
तीन से तरह पर
गोटियन के।
आ ऊ ' सौ ' तक पहुँचे खातिर, शतक खातिर
बेचैन होके आगे बढ़ते रहेले
कबो सीढ़ी कबो साँप
कबो साँप कबो सीढ़ी
साँप-सीढ़ी, सीढ़ी-साँप
केतना बेर अइसने
साँप के डँसला के डर,
सीढ़ी के सहारा के आशा,
केतना खट्टा-मीठा अनुभव
केतना सुख दुख।
आ तब जाके मिलेला
"सौ" शतक।
सफलता के चोटी।
फूल के खूशबू।

मेहनत के मिठास।
चरमोत्कर्ष के सुख।

ठीक ओइसने बा जिनिगी।
चारो तरफ फइलल बा,
साँप आ सीढ़ी के जाल।
ना ना, बलुक ई जिनिगिये हs,
"साँप आ सीढ़ी के जालवत् संरचना"।
एमें केतना बेर रोग-बलाय, डर-डाह,
हम-हमिता आ इरिखा-कलंक
के साँप आदमी के डँसेला।
लोभ, मोह, क्रोध आ वासना के
जहर उगिल के
फइला देला,
खून में, मन में, प्राण में, आत्मा में,
आ तब मर जाला आदमी के स्वाभिमान।
बाकि फेर मिल जाला, कवनो सीढ़ी के सहारा,
कवनो उपलब्धि, कवनो यश
कवनो खुशी के वैशाखी,
चले खातिर
केहू के प्यार बढ़े खातिर,
जीये खातिर जागे खातिर।
फेर जी जाला आदमी, जाग जाला आदमी।
अइसहीं केतना बेर होला
आदमी जी-जी के मरेला
आ मर-मर के जियेला।
तइयार होला साँप आ सीढ़ी वाला
अनुभव के अँटिया
आ बोझा बन्हा जाला
मन के ढोये खातिर।
काहे कि इहे अनुभव ह जिनिगी।