भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साईकिल / शिव रावल
Kavita Kosh से
तूने (साईकिल) संभाले हैं कितने बचपन, बुढ़ापे, जवानियाँ
ना जाने कब से तेरे सफ़र लिखते आए हैं अनगिनत कहानियाँ
तेरे सहारे न जाने कितने अल्लहड़पन गिर-गिर के नौजवां बने
तूँ न जाने कितनी मोहब्बतों का सिलसिला बनी
तूँ कामयाबी की निशानी के तौर मुकर्रर हुई, बूढ़े पैरों का सहारा बनी
लोहे-सी मिसालें हैं तेरी ए रौनक-ए-गुजरा-ज़माना
ये और बात के अब मौजूदा दौर तुम्हें देखकर इतराता है
खैर ये भी तसल्ली है 'शिव' के कोई तो शौंक से साईकिल चलाता है