साखी / उपासना झा
मेरी पहुँच के परे
और ललक की सीमा में, उगता है चाँद!
लेकिन तृष्णा कि सामधेनी
बने रहने में हृदय है सुख-निमग्न
प्रतीक्षा बन गयी है आगत की पुलक
निद्रा है वह महादेश
जहाँ मेरी इच्छाओं के सर्वाधिकार है सुरक्षित
जहाँ कामनाएँ हैं अक्षुण्ण
स्वप्न में एक करवट है तुम्हारा शहर
दूजा है दूरस्थ कोई देश
जहाँ हम हैं अज्ञात-कुलशील
प्रेम, कुछ ऐसा भी करता है
की आस्तिक का बदल देता है ईश्वर
नास्तिक को देता है एक नई राह
करता है स्वर्ग-च्युत किसी धीर-प्रशांत को
योगी को देता है तृप्ति का वरदान
कई रातें आँखो में जलाकर;
जो बनता है एक चुटकी काजल
उसे प्रेमिका लगाकर प्रेमी के कान के पीछे
निश्चित हैं कि प्रेम उसका अब अमृत है
दुनिया को रखती है बन्द किसी दराज़ में
उसे नहीं चाहिए बैकुंठ की देहरी
प्रेमी के नाम में कई तीर्थ बसते हैं।