सागर, रास्ता दे / योगेन्द्र दत्त शर्मा
अब सहा जाता नहीं वनवास,
सागर, रास्ता दे!
कह रहा है राम का उपवास,
सागर, रास्ता दे!
यह दुखों की मौन मरु-यात्रा
शशक-सा ढो रहा तन,
और, वैदेही बिना
आकुल हिरन-सा छीजता मन;
हर दिशा में छोड़ता उच्छ्वास,
सागर, रास्ता दे!
निर्वसन, खारे जलाशय में
पुलिन तक खो गया है,
मौन अंतर्दाह
सुरसा-सा अचानक हो गया है;
विष-बुझे शर-सा हुआ वातास,
सागर, रास्ता दे!
ज्वार के इस छोर से उस छोर तक
कुछ बिम्ब खंडित,
सेतु की अविराम आकांक्षा लिये
प्रतिपल सशंकित;
सौंपते कुंठित, दमित उल्लास,
सागर रास्ता दे!
सामने माया-मृगों की
वंचना बुनती हवाएं
और, पीछे वृद्ध दशरथ-सी
चकित, शापित ऋचाएं;
त्रास का ठहरा हुआ आभास,
सागर, रास्ता दे!
शूर्पनख उन्माद से आक्रांत
दंशित पंचवटियां,
ऊंघते वन की शिराओ में
घुमड़ उठतीं सिसकियां;
आर्ष मन के आर्त शब्द हताश,
सागर रास्ता दे!
भंग मर्यादा, कहीं हतभाग
लक्ष्मण-रेखा टूटी,
पांव-नीचे की धरा विध्वस्त
आश्रय-वेल छूटी;
कर रहा रावण उधर उपहास,
सागर, रास्ता दे!
पंख-झुलसा वृद्ध संपाती
दिशाहारा थकानें,
युद्ध में घायल जटायु उदास
पथराई उड़ानें;
नापने को शेष वृहदाकाश,
सागर, रास्ता दे!
सूर्यवंशी अस्मिताओं को
चुनौती दे रहा तुम,
भूमिजा संवेदनाओं का
बिखरता, टूटता भ्रम;
हो रहा आहत सहज विश्वास,
सागर, रास्ता दे!
अब न जंचता और
अंधी शक्ति के आगे समर्पा,
या, शिलाओं पर बहाना
अश्रु-जल का मूक तर्पण;
व्यग्र हैं मन में पवन उनचास,
सागर, रास्ता दे!
प्रार्थनाएं क्षुब्ध, आस्थाएं थकीं
धीरज चुका है,
एक सीमा से अधिक
मन राम का अब तक झुका है;
अब रचा जाये नया इतिहास
सागर, रास्ता दे!
एक सीता का नहीं यह प्रश्न
कुछ आदर्श का है,
प्रश्न यह अन्याय, अनयाचार से
संघर्ष का है;
रोकना है यह विकट ख-ग्रास,
सागर, रास्ता दे!
एक छाया स्वप्नगंधा-जानकी
बंदी पड़ी है,
आ गई सिर पर अनाहूता
परीक्षा की घड़ी है;
अब कथा लेगी नया विन्यास,
सागर, रास्ता दे!
कह रहा धनु पर उभरता व्यास,
सागर, रास्ता दे!
-27 जून 1984