सागर और धरा मिलते थे जहाँ / अज्ञेय
सागर और धरा मिलते थे जहाँ
सन्धि-रेख पर
मैं बैठा था ।
नहीं जानता
क्यों सागर था मौन
क्यों धरा मुखर थी ।
सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना
देखता था सागर को
किंतु धरा को सुनता था ।
सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था
रेती की लहरों पर लिखता जाता था ।
मैं नहीं जानता
क्यों
मैं बैठा था ।
पर वह सब तब था
जब दिन था ।
फिर जब
धरती से उठा हुआ सूरज
तपते-तपते हो जीर्ण
गिरा सागर में-
तब संध्या की तीखी किरण एक
उठ
मुझे विद्ध करती सायक-सी
उसी सन्धि-रेख से बाँध
अचानक डूब गई ।
फिर धीरे-धीरे
रात घेरती आई, फैल गई ।
फिर अंधकार में
मौन हो गई धरा,
मुखर हो सागर गाने लगा गान ।
मुझे और कुछ लखने-सुनने
पढ़ने-लिखने को नहीं रहा :
अपने भीतर
गहरे में मैंने पहचान लिया
है यही ठीक । सागर ही गाता रहे,
धरा हो मौन,
यही सम्यक स्थिति है ।
यद्यपि क्यों
मैं नहीं जानता ।
फिर मैं सपने से जाग गया ।
हाँ, जाग गया ।
पर क्या यह जगा हुआ मैं
अब से युग-युग
उसी संधि-रेख पर वैसा
किरण-विद्ध ही बँधा रहूँगा ?