सागर पर साँझ / अज्ञेय
बहुत देर तक हम चुपचाप
देखा किये सागर को।
फिर कुछ धीरे से बोला :
‘‘हाँ, लिख लो मन में इस जाती हुई धूप को,
चीड़ों में सरसराती हुई इस हवा को,
लहरों की भोली खिलखिलाहट को :
लिख लो सब मन में-क्यों कि फिर
दिनों तक-(क्या बरसों तक?)-
इसी सागर पर तुम लिखा करोगे
दर्द की एक रेखा-बस एक रेखा
जो, हो सकता है, मूर्त स्मृति भी नहीं लाएगी-
केवल स्वयं आएगी एक रेखा जिसे
न बदला जा सकता है, न मिटाया जा सकता है
न स्वीकार द्वारा ही डुबा दिया जा सकता है
क्यों कि वह दर्द की रेखा है, और दर्द
स्वीकार से भी मिटता नहीं है...’’
लौट हम आये साँझ घिरते न घिरते।
पर फिर उस सागर-तट पर रात को
उगा तारा : उसी पर छितरायी चन्द्रमा ने चाँदनी
उसी पर नभोवृत्त होता रहा और नीला, अपलक :
ये भी तो लहरों पर कुछ लिखते रहे!
हम ने जो लिखा था
अगर वह दर्द है
तो ये क्या लिखते हैं :
न सही दर्द उन में,
न सही भावना-फिर भी, निर्वेद भी,
कुछ तो वे लिखते हैं?
हाँ!
कि ‘‘दर्द है तो ठीक है :
(दर्द स्वीकार से भी मिटता नहीं है
स्वीकार से पाप मिटते हैं, पर दर्द पाप नहीं है।)
दर्द कुछ मैला नहीं,
कुछ असुन्दर, अनिष्ट नहीं,
दर्द की अपनी एक दीप्ति है-
ग्लानि वह नहीं देता।
तुम ने यदि दर्द ही लिखा है,
भद्दा कुछ नहीं लिखा, झूठा कुछ नहीं लिखा,
तो आश्वस्त रहो : हम उसे गहरा ही करेंगे, सारमय बनाएँगे,
उस में रंग भरेंगे, रूप अवतरेंगे,
उसे माँज-माँज कर नयी एक आभा देते रहेंगे,
काल भी उसे एक ओप ही देगा और।
जाओ, वह लिखा हुआ दर्द यहाँ छोड़ जाओ-
तुम्हें वह बार-बार नाना शुभ रूपों में फलेगा।’’
जापान (शिमिजू सागर-तट पर), 5 जनवरी, 1958