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सागर मुद्रा - 7 / अज्ञेय
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वहाँ एक चट्टान है
सागर उमड़ कर उस से टकराता है
पछाड़ खाता है
लौट जाता है
फिर नया ज्वार भरता है
सागर फिर आता है।
नहीं कहीं अन्त है
न कोई समाधान है
न जीत है न हार है
केवल परस्पर के तनावों का
एक अविराम व्यापार है
और इस में
हमें एक भव्यता का बोध है
एक तृप्ति है, अहं की तुष्टि है, विस्तार है :
विराट् सौन्दर्य की पहचान है।
और यहाँ
यह तुम हो
यह मेरी वासना है
आवेग निर्व्यतिरेक
निरन्तराल...
खोज का एक अन्तहीन संग्राम :
यही क्या प्यार है?
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969