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साजिशें फिर पनपने लगी हैं / सर्वत एम जमाल

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रचनाकार=सर्वत एम. जमाल संग्रह= }} साँचा:KKCatGazal


साजिशें फिर पनपने लगी हैं
सब दिशाए बहकने लगी हैं

ऋतू बसंती बहुत दूर है पर
बुलबुलें क्यों चहकने लगी हैं

गरम सूरज से रिश्ते बढ़ाकर
सारी नदियाँ पिघलने लगी हैं

मेरी आँखों में क्या मिल गया है
उनकी आँखें चमकने लगी हैं

बेटियाँ हैं घरों में सुरक्षित
सिर्फ बहुएं दहकने लगी हैं