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सात / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
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अली कैसे तुम से कह दूँ अपने अमन की वे बातें
सुधियाँ दौड़ी आती हैं
इन नैनों के कोरों पर
छल-छल उतर जाती है
मृदु पलकों के छोरों पर
लिखने बैठूँ तो शब्द जाल
बिलबिला होठ में जाते
ओठों के कम्पन की भाषा
तुम काश! समझ पाते
सुधि जगा कैसे काटूँ जीवन की रातें
हर रात सितारे डूबे
हर सुबह फूल निकले हैं
मेरे उच्छवासों के शबनम
सब पर मजबूर ढलें हैं
तुम बिरहानल की लपटों का
संताप सहन करने की
हिम्मत कर लो या ठान
लो उससे लड़ने की
आ तब मैं तुम्हें सुनाऊँ, जीवन की वे अघाते
अली कैसे तुमसे कह दूँ अपने मन की वे बातें