सात घोड़े और परदानशीं. / सुधीर सक्सेना
काठ की चौखट के आगे
लटक रहा है परदा
कई कई बित्ता पैबन्दों से बोझिल
मगर बहुत बहुत पाबन्द
किसी पहरेदार की तरह
इस कदर सख्त मिजाज
कि कभी नहीं दिखा स्त्री का मुखड़ा
परदे के बाहर
दुनिया जहान को
परदे के भीतर शुरु हो
परदे के भीतर खत्म होती है
परदानशीं स्त्री की दुनिया
परदे का छोर है
कि कर्कश बिवाइयों भरी एड़ी
परदे कि देह है कि
किसी योद्धा की जख्मों भरी देह
रोज आते हैं
और आकर लौट जाते हैं,
सूरज के सातों घोड़े
अनसुनी कर देता है वह
घोड़ों की टापों की आवाज
और तना रहता है
प्रत्यन्चा सा आठों पहर
कभी कभी
परदे की ओट से
झाँकती है स्त्री की उंगलियाँ
ज्यादा अज ज्यादा
चूड़ी तर कलाइयाँ
स्त्री कुछ नहीं कहती
बस अयाल सहला देती है घोड़ों का
या हलका खरहरा कर देती है घोड़ों की पीठ पर
नीम सन्नाटे में हटात
बजती है चूड़ियाँ,
जब जब ऐसा होता है
हिनहिना उठते हैं सूरज के सातों घोड़े
उस रोज
देर तलक
बहुत देर तलक
लखौरी ईंटों के पुराने चबूतरे पर
मगन हो खड़े रहते हैं
सूरज के सातों घोड़े।