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साथी सब सहना पड़ता है / गोपालदास "नीरज"

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साथी, सब सहना पड़ता है।
उर-अन्तर के अरमानों को,
छालों को मधु-वरदानों को,
और मूक गीले गानों को

निर्मम कर से स्वयं कुचल कर
और मसल कर-
भी तो जननी के सम्मुख
असमर्थ हमें हँसना पड़ता है।

संचित जीवन-कोष लुटा कर
पाषाणों पर हृदय चढ़ाकर
सब अपने अधिकार मिटाकर
घूँट हलाहल-सी भी पीकर-

अपने ही हाथों से कंपित
और विनिन्दित-
भी हो, खुशी न खुशी से
पर मर-२ कर जीना पड़ता है।

जीवन के एकाकी-पथ पर
कुछ कांटों की सेज बिछाकर
कर का जलता दीप बुझाकर
पग अपने सहला-२ कर-

अपने ही हांथों से विह्वल
तन-मन व्याकुल-
भी हो पर जीवन-पथ पर
हमको प्रतिपल बढ़ना पड़ता है।
साथी, सब सहना पड़ना पड़ता है॥