भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साधो, मन के मीत हेराने / सुशील सिद्धार्थ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साधो, मन के मीत हेराने।
बादरु बरसै हम रंभिति है यादि कि छतुरी ताने॥

समउ लै गवा साथी संघी होई का बिल्लाने।
अनगैरिन का म्याला टहलै को केहिका पहिचाने॥

दूरि तलक ना सूझै कउनौ आंखिन आंसु समाने।
जी जियरा मा जोति जगावईं अब उइ दिया बुताने॥

खुले खजाने लूटै दुनिया स्वारथ का रनु ठाने।
नये दौर कै बानी बदली बूझौ येहि के माने॥

नीके मुंह ना ब्वालै कोई दुनिया चलइ उताने।
कोई तौ आंखिन मा उतरै आवै तौ समुहाने॥