सामाजिक जोगीरा / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
बेटा वेचि टका तँ भेटल, घरमे अइली चण्डी,
बूढ़ा जारनि फाड़थु, बूढ़ी चाथु चढ़ाबथु हण्डी,
अण्डी नहि ने टाका?
भैँसुर धरथु कोदारि बनाबथ आरि समुच्चा कोला
कनियाँकेँ भरिगर्मी चाही नित्तह कोकाकोला
गोला बर्फक संगहि।
बूढ़ा-बूढ़ी, भैया-भौजी अपन हँसोथथु माथ,
बौआ एक कमौआ ढौआ देथि बहुरिया हाथ
लाथ गौआँ-घरूआसँ।
कहथि बहुरिया-हम कमाइसँ देब न एक छदाम,
बाबू हमर वियाहे दिनमे चुका देलनि सब दाम
गाम नहि व्यर्थ घिनाबी।
असल बात कहलापरा हमरा करथु न क्यौ बदनाम,
फगुआमे पूआ बदलामे फाँकथु भूजि बदाम,
दाम लेलनि, की कयलनि?
बौआ गुम्मी लघने छथि जैँ पैसल छनि आदंक,
भय छनि मनमे-कतहु वंशमे लागि न जाय कलंक
सशंकित सदा रहै छथि।
कन्यादानक बेर करय आदर्शक बात समाज,
बेटा बेर न आबय क्यौ बगुली भरबासँ बाज
लाज धो पीबि लैत अछि।
महारोग पैसल समाजमे अछि ई प्रथा दहेज,
बेराबेरी लागत सबकेँ तेँ राखू परहेज।
करेज न टूटत ककरो।