साम्प्रदायिक दंगे / महेन्द्र भटनागर
नगर-नगर व गाँव-गाँव में, दहक रही यह आग है,
डगर-डगर व पाँव-पाँव पर, भभक रही यह आग है !
कि आसमान चीरती हुई, विनाश की हवा चली,
हुआ अधीर, लाल-लाल बन जहान, सृष्टि सब जली,
कराहती व चीखती सनी हुई यह रक्त से गली-गली,
मनुज विवेक हीन, हिंस्र हो गया कठोर, जंगली !
कि ख़ून आँख में, कटार का कटार से जवाब है,
कि बस, यहाँ स्वच्छंद मज़हबी गँवार ही नवाब है !
न दीखती कहीं मनुष्य में ज़रा समीप लाज भी,
वही लिए कराल आदि जानवर शरीर आज भी !
असभ्य मद-प्रमत्त डोलती हैं हिंसकों की टोलियाँ,
सुलग रही असंख्य बेक़सूर व्यक्तियों की होलियाँ !
जलन के दर्द से कराहती औ’ काँपती वसुन्धरा
कि आज एक बार फिर जगी चँगेज़ की परम्परा !
कि आज एक बार फिर उखड़ रहे हैं बेशुमार घर !
कि आज एक बार फिर दिलों में छा रहा निरीह डर,
उतर रहे हैं मौत घाट लाख-लाख बालकों के सर
कि खा रही पछाड़ विश्व-माँ लुटी हुई सिहर-सिहर !
मनुष्य का कठोर रूप यह भयावना है किस क़दर,
कि धर्म जाति गत प्रभाव का ज़हर उगल रहा ग़दर !
स्वदेश छोड़, अश्रु साथ ले ये चल पड़े हैं काफ़िले
अनेक रोग ग्रस्त, चोट त्रास्त हैं, अनेक अध-जले !
कि रोक लो शहीद बन तमाम औरतों की आबरू !
महात्मा, पटेल, शेख, राष्ट्र-कर्णधार नेहरू !
रुको प्रगति, विकास और राष्ट्रीयता के दुश्मनो !
गुलाम-वृत्ति अब नहीं, रुको स्वतंत्रता के दुश्मनो !
तुम्हें क़सम है चाँद की, तुम्हें क़सम है पाकतम क़ुरान की,
तुम्हें क़सम ज़मीन की, तुम्हें क़सम है आसमान की !
मदद करो निरीह की उठो न, क्योंकि कर्बला के वीर हो,
अरब महान देश के बहादुरो! उठो कि तुम अमीर हो !
शिवा-प्रताप की परम्परा के पुत्रा तुम बदल गये,
महानता के स्वप्न को लिए हुए कहाँ फिसल गये ?
तुम्हीं वतन की शान-बान को गिरा रहे, मिटा रहे,
कि हिन्द की उदार भावना स्वयं घटा रहे !
कि मेल से रहो, यही करीम और श्याम की पुकार है,
कि एक हिंद हो यही रहीम और राम की पुकार है !