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सायों के साए में/ शीन काफ़ निज़ाम

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मुंतज़िर
मुशव्वशो मुंतशिर
कितने मकानों की क़तारें
उस खंडहर की ओर
जो शायद कभी मा' बदकदा था
उन का
जिन के गम होने से हैं
गुमसुम
सभी गलियाँ और
गुज़रगाहों प' मंडराता हुआ
आसेबी साया
मोड़ पर
रूकती ठिठकती
अजनबी साए से
सहमी
कोई परछाई पलटती
भागते क़दमों की आहट
डूब जाती
आबजू के
ठीक
बीचो बीच