सार्थकता / शुभा द्विवेदी
जाने क्या सहेजने लगती हूँ
सभी कुछ तो टूट चूका भीतर ही
सिर्फ ये साबुत देह बची है
क्या इसी को सहेज रही हूँ
क्या इसे ही बचा रही हूँ
जो नश्वर है?
किससे बचा रही हूँ
नश्वर को नश्वर से?
स्वाभिमान, अभिमान, नेह, प्रेम,
ईर्ष्या, क्रोध सभी राग दोषों से तो
मुक्त हो चुकी है आत्मा
निरंतर ही गंतव्य की ओर अग्रसर
हाड़ मांस की देह का अब क्या करूँ?
न जाने कितनी ही इक्षाओं से मुक्त
कर चुकी हूँ इस देह को
फिर भी एक इक्षा शेष
ही रह गयी
नहीं जलाना चाहती चन्दन की
लकड़ियोँ पर इसे
सभी ओर से परित्याग की हुई इस देह को
जलाना चाहती हूँ
प्रकृति के अविशिष्टों के साथ
कुछ शाख से गिरे हुए पत्तों के साथ
कुछ डाली से टूटे हुए
मिटटी में मिले हुए
फूलों के साथ
इसी से शायद निकल कर आएगी
देह के जाने के बाद भी देह की सार्थकता।