सावधान रहना, दोस्त ! / सुभाष राय
मौसम से बहुत सावधान रहना
हवाएँ कभी कुछ नहीं बताती
पेड़ों पर पत्ते फड़फड़ाते नज़र आते हैं
और तुम आ जाते हो सड़क पर
अच्छी लगती है भीगी हवा
थकान और ताप सोखती हुई
इसी हवा में एक तूफ़ान भी होता है छिपा हुआ
जो पेड़ को उखाड़ कर फेंक सकता है तुम्हारे सिर पर
तुम्हारी छत को चकनाचूर कर सकता है
नरम तने की तरह मोड़ सकता है दीवारों में लगे लोहे
नहीं बताती हवा, किस क्षण वह आन्धी में बदलेगी
सावधान रहना समुद्र से
पता नहीं, कितने पहाड़ धधक रहे हैं उसके भीतर
जानता हूँ, सागर तुम्हारे भीतर बसता है
नावें लेकर मछलियाँ पकड़ना चाहते हो तुम
तुम नहीं जानते कब उसकी लहरें
तिनके की तरह तुम्हें निगल लेंगी
तुम्हारे ऊपर पटक देंगी कोई चट्टान
एक क्षण में तुम्हें दफ़्न कर देंगी जीवाश्म की शक़्ल में
नहीं बताता सागर कि वह कब तट पर धावा बोलेगा
सावधान रहना पहाड़ों की यात्रा करते हुए
खींचते हैं बरबस सुबह की धूप में जलते हिमशिखर
घाटियों में खिले फूल सम्मोहित करते हैं रूप गन्ध से
उड़ने लगता है मन बादलों के साथ
लेकिन भनक तक नहीं लगती
कब दरकने वाली है तुम्हारे पाँव के नीचे की चट्टान
किस चोटी के पीछे जमा हो रहा है पानी
कहाँ रची जा रही हैं चहचहाती घाटियों को डुबो देने वाली साज़िशें
नहीं बताता पहाड़ कि वह कब कीचड़ और सैलाब में बदलने वाला हैै
सावधान रहना अपने हाथों से
तुम्हें अपनी मुट्ठी पर बहुत भरोसा है
ज़रूरत पड़ने पर भिंच जाती है, ललकार में बदल जाती है
तन जाती है, अनगिनत मुट्ठियों में बदल जाती है
पर कभी भी एक हाथ इनकार कर सकता है दूसरे के साथ लहराने से
सावधान रहना जब कोई भी साथ न हो
जब लालच और पाखण्ड के बवण्डर मण्डरा रहे हों
ताकि लड़ते हुए भी बने रह सको मनुष्य
मनुष्य की तरह मरकर भी झूठ के ख़िलाफ़ लड़ते रहोगे
भविष्य के हर युद्ध में खड़े मिलोगे