सिंह-तंत्र / महाप्रकाश
लोककथाक एकटा सिंह
जम्बू द्वीपक गद्दी पर बैसि गेल
पुस्तैनी अधिकारसँ भाग्य विधाता
बनि गेल ओहि शत सहस्त्र
शशक सभहिक
जकरा कान पकड़ि
लोक उठा लैत छल
समय-असमय
शस्य-श्यामल भूमिसँ अपना हित
किंतु रूपक स्वरूप ओ सिंहराज
भ’ क’ सवार निकलैत छल
द्युति केर ग्रह पर
दांगैत कौखन पानि कौखन
भरल कोखि खेत कौखन
आकाश कौखन दिक्काल
मात्र बांटबाक लेल
शब्द एक जे परिभाषाविहीन
याचित जुलूस
कौखन शुष्क
श्रीहीन पुष्पक खंछित माल।
अवाक ओ होथि नहि
बहुत-बहुत सवाक हुनक
संग सन्नद्ध छल
शशक शावककें
अरण्यकेर पुरखासँ
बहुत किछु अज्ञात जे
से ज्ञात छल।
तँ ओ आन्हर इनार नहि
नदी नहि सागर नहि
क्षिप्र एक शान्त
धारक कात जा बैसल क्लान्त।
दिन छलैक साफ
जेना प्रार्थनाक उपरान्त
चिर प्रतीक्षित भोर।
किंतु दुघर्टना एक घटि गेल
देखा गेलैक ओहि निःकाय नदीमें
पातालोन्मुख नील आकास
देखा गेलैक आरक्त ठोरक नीचाँ
दाढ़ीमे नुकाएल
ओ चर्चित तिनका देखा गेलैक
मुखमंडलक चतुर्दिक पसरैत
कालिखक मोट होइत रेखा।
भयंकर गर्जन-तर्जन कएलक
ओ सिंहराज-विस्फोट सँ काँपि उठल
वनप्रान्तर दरकि गेल
एक हजार नौ सौ अठासी माइकेर
कोंढ़-करेज आसन्न साकार संकटसँ।
किन्तु ओ शशक शावक
आवाजक उद्वेगसँ जा खसल
गंगाक कोरसँ बहैत
प्रशान्त सन सागरमे
डूबैत मस्तूल जकाँ चिकरैत...
नहि....नहि ओ अबाध घूर्णित
आकासकें मथैत नक्षत्र जकाँ
आर्त चित्कार आहत राजहंस केर
-कत’ छी आदिकवि
-कत’ अछि सिद्धार्थक अंक पावन ?
किन्तु श्रेष्ठिजन विद्वमण्डली
कुण्डलिनीक सर्व जकाँ अंध-गह्वरामे
प्रश्नाकुल गह्वरित
-किऐक होम’ लागल अछि
दिन साफ एहि अरण्यमे,
जे हाथक रेखा देखा जाइत अछि
-किऐक होइत अछि समय शान्त
जे अन्तर्यात्रा खुलि जाइत अछि ?