सिपाही : पांच कविताएं / शहंशाह आलम
एक
तुम हो तो
भय भागा हुआ है
दूर किसी घाटी में समुद्र में
तुम हो तो
सच्चाई है बची हुई
अच्छाई है बची हुई
तुम हो तो
यह देह यह शरीर है
कई-कई ख़तरों
कई-कई संकटों में भी
सही-साबुत पूरी तरह
दो
मुझे इस अज्ञात अनजान नगर-महानगर में
जानते हो तो तुम्हीं जानते हो
मैं भी तुम्हें ही जानता हूं
पूरी तरह आमंत्रित
तुम्हीं दिखाते हो
मेरे परिचित का रास्ता
और घर और इतिहास
तुम्हीं भरते हो साहस
मुझ में मित्र बनकर
जैसे कोई अपना बनकर
तीन
हम फंसते हैं बुराइयों में
किसी दुर्घटना में
बाढ़ प्रलय संकट में
हम फंसते हैं बारहा
अपराधियों के बीच
हम फंसते हैं करोड़ों बरस से
अपने ही भीतर की
कमज़ोरियों में अक्सर
अंततः तुम्हें ही पुकारते हैं करोड़ों बरस से
अंततः अंततः अंततः
तुम्हीं निकालते हो
भय की बुराई की नदी से बाहर हमें
चार
दिन और रात
पृथ्वी और ब्रह्माण्ड
शब्द की चुप्पी तक को
करते हो मुखरित
अपने छन्दों से तुम्हीं
पांच
लड़की सपने में
डरती है बेतरह
डरकर पानी हो जाती है
कुछ बच्चे स्कूल से लौटते हुए
सड़क पार नहीं कर पाते
चोर और अपहरणकर्ता
लकड़ी काट ले जाते हैं
मेरी-तुम्हारी नींद से
तुम्हीं लौटाते हो
लड़की को सुन्दर सपने
पार कराते हो बच्चों को
सड़क सुरक्षित अभयभीत
हमारी नींद में
तुम्हीं भरते हो
हरे पेड़ हरे मैदान हरी घाटियां
तोतों से और फलों से और उजालों से
भरते हो इस पृथ्वी की चुप्पी को
भरते हो जल को नाव से पक्षियों से
बरसात को अपनी लय से।