भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिर्फ तुममे रहना चाहती हूँ / शुभा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महसूस कर रही हूँ तुम्हें नर्म-नर्म धूप की तरह
हवा में घुली हुई मिट्टी की सुगंध की तरह
गहन है तुम्हारी अनुभूति विशाल आसमान की गहराइयों की तरह
अन्नंत है तुम्हारा एहसास
मिलन की आस है उस तरह
जिस तरह पूर्णिमा को सारंग को रहती है सागर के लिए
लिख रही हूँ अक्षर अक्षर, गढ़ रही हूँ निराकार प्रेम
उतर रहे हो तुम मुझमे बूंद-बूंद बनकर
भावनाओं के ज्वार प्रबल है या जीवन जल रहा है हवनकुंड में
नहीं जानती
जानती बस इतना हूँ गाह-गाह जल रही हूँ मैं
तुम्हारे विरह में
कभी चांदनी की शीतलता का एहसास है
तो कभी तप्त रेगिस्तांन में हूँ
भटकती हुई मृगमरीचका में
बढ़ रही है प्यास, पपीहे-सा इंतज़ार
क्या स्वाति नक्षत्र की एक बूँद गिरने से प्यास ख़त्म हो जाएगी
नहीं जानती
सब कुछ खोकर, आत्मभाव से सिर्फ तुममें लीन होना चाहती हूँ
सुन रहे हो न, बहुत रह लिया सबके हृदयों में, बस अब
सिर्फ तुममें रहना चाहती हूँ
सिर्फ तुममें रहना चाहती हूँ कृष्ण!