भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिसक रहे चूल्हे / भावना तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक अटा के नीचे जलते
सिसक रहे चूल्हे।

सीले-सीले सम्बन्धों को
निभा रहे हैं
आँखें मींचे।
हृदय नहीं मिलता है लेकिन
बाँहों को बाँहों में भींचे।
खेप नये रिश्तों की आयी
मटकाती कूल्हे।

वास्तु-टिप्स की
आड़ें लेकर
बदल दिया
घर का फ़र्नीचर।
लेकिन एक
कक्ष बाबा का,
सबको लगता
वहीं शनीचर।
टाँग दिए हैं वहाँ किसी ने
फिर जूते-उल्हे।

बिना खिंची इन
दीवारें को,
लाँघ नहीं पाती मुस्कानें।
पर्व और
उत्सव में मिलते,
उलाहनों की भौहें तानें।
शांत दुल्हनें, अपने-अपने
समझातीं दूल्हे।