भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सीढ़ी / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
बहुत लोगों ने
सीढ़ी समझ लिया मुझे
मेरे एक डँडे पर पैर रखते
ऊपर चढ़ते
होंठों में हलका सा मुस्कुराते
दूसरे पर पैर रखते
तो और विश्वास में
अगले डँडे को पकड़ते
मेरी अज्ञानता पर दया करते
होंठों पर
शैतानी मुस्कान सजाते
फिर अगला और
उस से अगला डँडा
जैसे ही लेकिन
आखरी डँडे पर पैर रखते
ऊपर देखते
सामने मैं खड़ा होता
अटल
मुस्कराता।