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सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 8 / प्रताप नारायण सिंह

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जो शूल सी है चुभ रही, वह कौन सी है वेदना
है कष्ट आखिर कौन सा जो अश्रु कारण बना

हे वत्स कह दो सत्य क्या है, शपथ तुमको राम की
संकट घिरा अब कौन सा, अनभिज्ञ जिससे जानकी

तुमको शपथ माता सुमित्रा की तथा कुलदेव की
कारण कहो क्या है तुम्हारे चित्त के दुःख-मेरु की

मेरे वचन सुन, नयन उनके मेह से झरने लगे
धरकर चरण रुँधते गले से निज व्यथा कहने लगे

"हे मात! मैं हूँ विवश वह अपराध करने के लिए
सौ सौ नरक भी कम पड़ेंगे पाप हरने के लिए

है जानकर सेवक मुझे यह कार्य राजा ने दिया
सम्पूर्ण मेरे जन्म भर के सुकृत का है क्षय किया

होगा उल्लंघन राज आज्ञा का, न जो पूरा करूँ
औ जो करूँ, जन्मान्तरों तक नर्क में जलता मरुँ

हिय वेदना से भर रहा, मेरे लिए यह दुःख बड़ा
ज्यों विष रगों में उतरता, यह मृत्यु जैसी यंत्रणा

है रोक सकती मृत्यु ही अब तो मुझे इस कार्य से
करना वरण ही काल का है श्रेष्ठ तो दुष्कार्य से

पर मृत्यु भी मुझ से नराधम को सहज आती कहाँ
जलता रहूँगा उम्र भर पापाग्नि में मैं तो यहाँ