सीमांतक संध्या और केंचुल का नृत्य / रामनरेश पाठक
एक पश्म की उजली माला
दीवार-टिकी, खूँटी से टंगी है
किसी राजनेता का उपहार मेरी अंतसप्रिया को.
मैं चित्रा की इस संध्या में
कच्चा और नंगा धुआँ
पी रहा हूं
आलस्य के ताल पर नाचता हुआ मैं
नहीं, मेरी केंचुल.
दर्शक:
टैगोर, बुद्ध, गांधी, नेहरू के चित्र, मेरा चित्र
मेरी अंतसप्रिया, पितृव्य और अनुज का चित्र
शंकर-पार्वती का चित्र, अजंता, खजुराहो के भित्ति-चित्र
और, हजार-हजार रंग-रेखाहीन चित्र
आलस्य के ताल पर
सुबोध जड़ता का आसव पिए
मेरे केंचुल का नृत्य
मेरा कच्चा नंगा धुआँ पीते जाना
अवश्य देख रहे हैं
इनकी पीठि-प्रतिष्ठा के मंत्र
शक्तिहीन हो गए हैं
इनकी आगमनी में न शंख बजते हैं
न विदा-वेला 'गच्छ-गच्छ सुरश्रेष्ठ'
कोई पुरोहित उच्चारता है
संस्कृति-संक्रांति की इस संध्या-वेला में
कोई महोच्चार नहीं होता
(केंचुल का नृत्य अवश्य देखते हैं यह)
यह न आर्द्रा है, न आश्लेषा, न कृतिका, न रोहिणी,
न पूर्वा, न मघा, न पुष्य, न पुनर्वसु
न उत्तरा, न हस्ता, न मृगशिरा, न स्वाती
न अश्विनी, न भरणी, यह विशाखा भी नहीं है
पूर्व या उत्तरभाद्रपद भी नहीं है
न रेवती ही, न दोनों फाल्गुनी
न अनुराधा, न शतभिषा, न घनिष्ठा
न मूल, न श्रवणा, न ज्येष्ठा ही
यह केवल चित्रा है
संस्कृति-संक्रांति की एक विकाला चित्रा संध्या
जिसमें कोई महोच्चार नहीं होता
आलस्य के ताल पर सुबोध जड़ता का आसव पिए
केवल केंचुलों का नृत्य भर होता है
अभी-अभी एक प्लग लगेगा और
एक प्लास्टिक-नारी संजीवित हो जाएगी
और, आलस्य के ताल पर नाचने वाला यही केंचुल
विलास के ताल पर तांडव करेगा
ये सभी दर्शक फिर इसे
उसी तरह अवश्य देखेंगे, चुप रहेंगे
मैं इन प्रलयों का एकांतिक मंत्र दृष्टा
ऋत-ऋषि साक्षी हूं, रहूंगा
कच्चा और नंगा धुआँ पीता हुआ
नृत्यलीला तो मेरा केंचुल करेगा
दर्शक न तो प्रतिनृत्य करेंगे
और न ही प्रतिभृति ही देंगे
संस्कृति-संक्रांति की इस विकाला चित्रा संध्या में
दूर...बहुत दूर...बहुत...बहुत दूर वहां
जहां किसी आश्रम के संबोधि-प्रतीक की
केतु शिरोरेखा दिखाई दे रही है
एक सर्वोदयी पदयात्रा ने भिक्षुणी की
पीली, गीली साड़ी सूख रही है
जिसके किनारी पर गुलाब उगे हैं
और आँचल में पद्म है
बीच-बीच में धान और गेहूं की झूमती बालियाँ हैं
यह मेरे मन में बैठे पुरोहित का
यथार्थवादी स्वप्न है
और दर्शकों का स्वप्नवादी यथार्थ!
इन दोनों को अर्पित यह पश्म की उजली माला
संस्कृति-संक्रांति की इस विकाला चित्रा संध्या में
दीवार-टिकी खूँटी से टंगी है