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सीसोॅ / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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धानोॅ रोॅ सीसोॅ रसें-रसें झूमै छै,
किसान देखी-देखी चारो तरफोॅ घूमै छै।

धन्न छै प्रकृति रोॅ अनूठोॅ काम,
कखनूॅ नै लै छै कटियोॅ-टा विराम।
जेनॉ चलै छै सुरूज चान,
साथें-साथें देखोॅ हवा पानी रोॅ शान।
रही-रही सीसेॅ धरती गगन,
 
जब्बेॅ सीसा रोॅ देखै छै लबर-लबर झुकनी,
तब्बेॅ किसानें करै छै वोकरोॅ झटपट कटनी।
दोसरोॅ दिन बासी बचलोॅ बुतरू करै छेॅलोरन्ही,
प्रकृति कत्तेॅ दयालु चलाय छै सब्भै रोॅ जीवनी।

लँगड़ा लूल्हा "संधि" बैठलोॅ कपार धुनै छै।
धानोॅ रोॅ सीसोॅ रसें-रसें झूमै छै,
किसान देखी-देखी चारो तरफोॅ घूमै छै।