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सुकूँ मांगे न राहत मांगती है / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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सुकूँ मांगे न राहत मांगती है,
ये चाहत तो इबादत मांगती है।

इसे रस्म ओ रवायत से ग़रज़ क्या,
मुहब्बत तो मुहब्बत मांगती है।

रवायत तोड़ना मुश्किल बहुत है,
हर इक जिद्दत बग़ावत मांगती है।

हमारी आने वाली नस्ल हरदम,
बुजुर्गों से नसीहत मांगती है।

वो इक नादान बच्ची कर के सजदा,
ख़ुदा से रोज़ जन्नत मांगती है।

ज़मी और आसमां कम पड़ रहे हैं,
तमन्ना और वुसअत मांगती है।

हमारी प्यास शीशे तोड़ बैठी,
ये पगली कितनी शिद्दत मांगती है।

मुहब्बत ज़िंदगी देती है लेकिन,
मुहब्बत ही कयामत मांगती है।

ग़ज़ल की आबरू अब मुझसे 'रिंकी' ,
ज़माने भर में शोहरत मांगती है।