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सुख के बीज / रश्मि विभा त्रिपाठी
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मेरे दुख को
देख दुखी हो जाते
जग- जंगल
जरा चैन ना पाते
दिन औ रात
दोनों हाथ उठाते
दुआ में बस
पिघलाते, गलाते
पीड़ा के हिम
गालों पर तैराते
हास के कण
जो तुमको लुभाते
तुम कहीं से
ढ़ूँढके ले ही लाते
सुख के बीज
घर में छिटकाते
फुलवारी- सा
आँगन महकाते
प्रिये! धन्य हो
जोड़ नेह के नाते
जीवन को जिलाते।
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