भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुदर्शन सुधाकर की शान में / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(यह ग़ज़ल प्यारे दोस्त सुदर्शन सुधाकर की शान में)

अपनी तारीख़ से कोई तो असर लेके चलें।
अपने कांधे किसी मंसूर का सर लेके चलें॥

उस गुलंदाम को वीराने की पहचान नहीं
दिल के नक़्शे पे किसी क़ैस<ref>मजनू</ref> का घर लेके चलें।

सारी तदबीर को इस बार उलटना होगा
अब नशेमन के लिए शाख़े-शजर<ref>पेड़ की डाल</ref> लेके चलें।

आख़िरी बार तेरी मान लें ऐ जोशे-जनूं
जिंसे-दिल यूं तो है नाकारा मगर लेके चलें।

हो न हो गुल कोई खिल जाएगा अपने दम से
सू-ए-सहरा किसी गुलशन की ख़बर लेके चलें।

उसका काशाना सजाना है कोई खेल नहीं
अपने हमराह कोई आइनगर लेके चलें।

ख़्वाब फिर ख़्वाब है सच होने को हो सकता है
कम से कम सोज़ निगाहों में सहर लेके चलें।

02.04.2017

शब्दार्थ
<references/>