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सुध रहे तब तो पुकारूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

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सुध रहे तब तो पुकारूँ!

चाहिए यदि कूज हंसी,
फूक तू ही प्राण-बंसी;
अधर-रस करतल-परस से
मैं बिसुधि अपनी बिसारूँ!

मन बने घन की बलाका,
तन-पुलक तरुदल-पताका;
खोल सौ-सौ आँख, पाँखों
छवि धरूँ, पलकों सँवारूँ!

सघन चकमक के जगाए
दाह को उर से लगाए,
नृत्यरत, सतरंग थालों
आरती तेरी उतारूँ!