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सुधि करो प्राण! पावस की घन-बोझिल सन्ध्या अभिरामा थी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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सुधि करो प्राण! पावस की घन-बोझिल सन्ध्या अभिरामा थी।
घन विटप-पर्ण के बीच छिपी बैठी मुग्धा खग-वामा थी।
अन्वेषण-आकुल खग मंडलि ने रव-मुखरित दिशि-छोर किया।
उस नीरव तरु के अंग-अंग को भर उमंग में झोर दिया।
मैं पूछ उठी ”क्यों मुखर हो गये खग प्राणेश्वर! पहचानो”।
बोले “पावस में बन्ध्या को भी होती प्रसव-पीर जानो”।
हो कहाँ कटाक्ष-कुशल! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥98॥