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सुधि करो प्राण! वह भी कैसी मनहरिणी निशा अनूठी थी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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सुधि करो प्राण! वह भी कैसी मनहरिणी निशा अनूठी थी।
सारी यामिनी विलग तुमसे प्रिय मान किये मैं रूठी थी।
गलदश्रु मनाते रहे चरण-छू छोड़ो सजनी नहीं-नहीं।
तेरा नखशिख श्रृँगार करूँ इस रजनी में कामना यही।
रक्ताभ रंग से रचूँ प्राण ! सित पद-नख में राकेश-कला।
आलता चरण की चूम बजे नूपुर-वीणा घुँघरू-तबला।
दुलराने वाले ! आ विकला बावरिया बरसाने वाली।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥53॥