भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनहली और काली / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनहली और काली
चन्दा तारे, सभी सिधारे,
आसमान कर खाली।
हुआ सवेरा, मिटा अँधेरा,
पूरब छाई लाली।
कहीं रुपहली, कहीं सुनहली,
तन उषा ने जाली।
दसों दिशा की,घोर निशा की,
सब कालिमा चुरा ली।
पड़ी दिखाई, अति मन भाई,
लची फूल से डाली।
लगीं बोलने, वहीँ डोलने,
उठ चिड़ियाँ मतवाली।
उषा रानी, सुभग सयानी,
निकली ले दो थाली।
जगे हुओं को मिली सुनहली,
सुप्त पड़ों को काली।