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सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू! / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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सुनो पप्पू!
मियाँ गप्पू!
उड़ाते हो बिना पर की,
सदा बातें अललटप्पू!
सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू!
तुम्हारी गप्प कोरी
यों हमें लगती निराली हैं,
सचाई से हमेशा दीखतीं वे
किंतु खाली हैं।
बनाकर नाव कागज की
चलाते हो बिना चप्पू!
न धरती पर कभी रहते
हवाओं में उड़ा करते,
बहानेबाज पूरे हो
किसी से भी नहीं डरते।
न चलते कौड़ियों में भी मगर,
तुम नाम के ढप्पू!
कसम खाते, मगर सच बोलना
तुमको नहीं भाता,
सरासर गप्प के बल पर
तुम्हारा काम चल जाता।
तुम्हारा नाम आखिर
रख दिया हमने मियाँ गप्पू!