भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो सखे / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सुनो सखे !
हम जो भी है
अजर-अमर है
बस देही मरती है
चक्रव्यूह में
फँसी-फँसी यह
पास हमारे आई
इसके अदर
रमा हुआ मैं
लेता हूँ अँगडाई
सुनो सखे !
यह देह हमारी अनुचर है
पर ये ही जरती है
रखती मेल –
मिलाप यहीं तक
कब मेरे साथ गई
हुई पुरानी
बदल गई कल
फिर दिखती आज नई
सुनो सखे !
यह देह लगाती चक्कर है
जो अनुदिन डरती है
इसके मरने
पर मरा नहीं
और न अब तक रोया
साथ इसी के
जागा दिन भर
और रात को सोया
सुनो सखे !
यह देह कथा बस पल भर है
जो पल में झरती है