सुनो साथी / नवनीत शर्मा
सुनो साथी !
बेशक हमारे कई कल काले रहे हैं
ख़ुशियों के जिस्म पर
कुंठाओं के छाले रहे हैं
अभिव्यक्तियों के मुंह पर ताले रहे हैं
सपनों की फ़सलें
देवताओं की ख़ुशी के लिए
लाखों बार कटी हैं
अतीत में झाँको
तो आकांक्षाएँ
गुरूब होते सूरज को देखते
देवदार संग
सहमी हैं, सटी हैं।
साथी! तुम्हे याद होगा
नहाए थे पसीने से हम
खेत मगर
फ़ाके ही उगाते रहे
आस्था के हाथ
अभावों को सहलाते रहे
उनका दहाड़ना रीत हो गया
हमारा घिघियाना
उदासी के नपुंसक प्रकरण का
शीर्षक गीत हो गया
अरे
वो एक लावा-सा था हममें
ठंडा ही रहा हमेशा जो
हमें बख्शी गईं काली कोठरियां
जिनसे सूरज का नहीं होता कोई रिश्ता
इस कोहरे में ठिठुर गए होते
कब के मर गए होते
जो नहीं देखे होते कुछ सपने
सपने देखना जिंदा रखता है बहुत बार
साथी!
हमें ख़रीदा भी गया
खहम बेचे भी गए
खामोश थे हम
तभी तो
हमें क, ख, ग से
कालिख, खामोशी और गरीबी
पढ़ाई गई
च, छ, ज से
चुप्पी, छल और जलन पिलाई गई।
पर
घुटन, हवा, जो भी हो
सबकी एक उम्र होती है
इसलिए अब हम आ से आम नहीं पढ़ेंगे
पढ़ेंगे आ से आग
अ से अनार नहीं
अस्तित्व का बोध लेंगे।
साथी ! तुम्हें याद है सबकुछ
मगर इस समय
ज़रूरी है आने वाले कल को याद रखना .