सुनो साधो / कुमार अनुपम
सुनो
यह समय आधी रात का जैसे अपरंपार
विद्युत-संचार की आवाज तार से
आती है लगातार
अपनी त्वचा और कमरे में सिकुड़ा हुआ
निपट अकेला हूँ बहुतों-सा
काले अक्षरों में बिखर रहा है
मेरे भीतर का अंधकार
कमरे में पसरा उजियार क्या प्रकाश है?
सुनो
ओस गिरती है कैसी चुपचाप
खोया है अंधकार में सारा दृश्य
एक परत और
धुंध की कैसी चमकदार चढ़ी जाती है
इस समय किसी रिश्ते का पास भी सिर्फ एक आभास है
एक अनुमान है मात्र
कैसे शुरुआत करूँ कहाँ से
जबकि अनुमान स्वयं एक भ्रामक शुरुआत है
इसीलिए कहता हूँ सुनो सुनो
पहली पदचाप से पहले की धड़कन
हृदय से
पाँवों की ओर बढ़े जाते
रक्त के वेग का रोर
और उससे भी पहले
कशमकश से उबर गए निडर मस्तिष्क का
अंगों को दिया गया अटल आदेश सुनो
साधो!
शुरुआत की बाबत जो सूचना उपलब्ध है असंख्य
भले प्रामाणिक हो सिद्ध हो
किंतु कहो
पुरा-चेहरे तमाम और मौलिक अपनी तरह
उनका उल्लास उनका दुख उनका राग और विराग
क्या ठीक ठीक खोजा पहचाना गया?
फिर जितनी सूचना उपलब्ध है असंख्य
कहो उनमें कितना है सत्य और तार्किक
और कितना लोकतांत्रिक?
अपनी शिनाख्त की कवायद में मुब्तिला
मैं तो बस बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ...
खैर सुनो
धुंध की एक लंबी दीवार है यह समय आधी रात का
जिस पर
हम चिपकी हुई सूचना में साँस साँस
कब से फड़फड़ाते हैं
क्या हम निर्द्वंद्व कहीं खोए हैं
या फरार
इसी तफतीश के लिए
दौड़ रहे हैं
सायरन बजाते कई सरकारी दस्ते
सुनो
सुनो
जहाँ हो कहीं भी छुप जाओ सावधान
अन्यथा
निश्चित अवसान...
जाने दो बीत और जरा रात
तय कर लो तब तक रणनीति सुनो
साधो!