भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुपनौ अर जथारथ / वाज़िद हसन काज़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हनै दीखै
सुपना में
वा इज सोन चिड़कली
फुदक-फुदक करती
म्हारै आंगणै
देखूं
च्यारूंमेर सान्ती
हरैक हाथ में काम
हिवड़ा में हेत
घर बार भरियौ पूरियौ
खेतां में ठठ
घर-गवाड़ में उछाह
हेत
सम्पत
मोटां रौ काण-कायदौ
छोटां रौ हेत सनैव
पण
अचाणचक बाज मारै
झपटौ
सुपनौ टूटै
खुल्ली आंख्यां देखूं
लाठी चक्कू छुरियां
धरणा प्रदरसण
गाळी गळौच
भागमभाग
आंख्यां में रगत
आंगणै में टाटियां
खेतां नैं बणती क्यारियां
डरूं
पाछी आंख्यां बंद कर लूं
बाटां जोवूं
उण सुपना री।