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सुबह / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
चांदनी की
रहस्यमयी परतों को दरकाती
सुबह हो रही है
जगो
और पाँवों में पहन लो
धूल मिट्टी ओस
और दौड़ो
देखो-स्मृतियों में
कोई हरसिंगार अब भी हरा होगा
पूरी रात जग कर थक गया होगा
संभालो उसे-उसकी गंध को संभालो
जगो
कि कुत्ते सो रहे हैं अभी
और पक्षी खोल रहे हैं
दिशाओं के द्वार
जगो
और बच्चों के स्वप्नों में
प्रवेश कर जाओ।